व्यंग
विवेक दत्त मथुरिया (वरिष्ठ पत्रकार)
‘लाला कहां जा रह्यौ है?’ ताऊ तावचन्द नै पड़ौस के लपकन नेता जी के बीच के छोरा ते पूछी। लाला बोलो ‘ताऊ चुनाव परचार में जा रह्यो।’ ‘पैदर कैसे जा रह्यौ है, कैंडिडेट ने गाड़ी कौ इंतजाम नाय करौ का ?’ ताऊ नै ताने भरे अंदाज में सवाल करौ।
लपकन नेता जी कौ छोरा बेचैन सिंह बोलो – ‘नाय ताऊ ऐसी बात नाय। सब इंतजाम हतै,गाड़ी-घोड़ा, खाबे-पीबे कौ। जे सब व्यवस्था चुनाव कार्यालय पै तय होय।’
‘लाला अब पतौ ही न पर रही, चुनाव है रह्यौ का!
लाला चुनाव तौ हमारे टैम में होबैए। महीनाभर सौ चुनाव परचार में ही निकस जावैऔ। पूरे चुनाव में नेताजी की ओर ते अलग ते सपेसल गाड़ी कौ इंतजाम होयबैऔ। भूमरे ही फकाफक कुर्ता धोती और जोरदार स्वाफ़ा बाँध नेताजी की कोठी पर धमक जाते। जाते ही चाय नाश्ता पै हाथ साफ करते।’
‘ताऊ फिर बाके बाद?’
‘बाके बाद तो ध्यान पूरी सब्जी में रहबैह्यो। भीड़ में पीछे न रह जाय? ताते पहले ही भंडारे में मोर्चों मार लेते। पेट पूजा ते फ्री हैबे के बाद कोठी ते बाहर नेताजी के साथ रवानगी को इंतजार करते।’
‘ताऊ अब सिस्टम बदल गयो है।’
‘कहाँ है गयौ है अब लाला?’
‘ताऊ अब तो कूपन की या नकद की व्यवस्था है। कूपन या नकद जो भी व्यवस्था रखी गयी है। होटल में जाके अपनी पसंद खाओ पिओ।’
‘लाला जे बढ़िया व्यवस्था है। लाला हमारे टैम में एक फायदा और हतो।’
‘ताऊ कहा फायदा?’
‘लाला चुनाव की गाड़ी ते सिगरी रिश्तेदारीन में अपनी नेतागिरी चमका लेते हा..हा…हा…हाहाहा। लाला पहले जैसौ बात नाय रही। पहले जैसौ तो कछु नाय बचौ। जा लाला तोय देर है जाएगी। चुनावन के भौत किस्सा हैं बाद में फुर्सत में बतयांगे।’
राधे राधे