
विवेक दत्त मथुरिया
(विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष)
अपवादों को छोड़कर ‘नौ सौ चूहे खाय बिल्ली हज को चली’ वाली कहावत हमारे मध्यवर्गीय समाज पर सटीक बैठती है। मध्यवर्ग निहित स्वार्थ में चीजों का जमकर दोहन करता और चार लोग उनके धत कर्मों को लेकर हिकारत भरी नजरों से न देखें तो मंदिर मस्जिद जाकर इबादत का स्वांग करने लगते हैं। यही मध्यवर्गीय चरित्र आज देश पर भारी पड़ रहा है।
आये दिन विभिन्न दिवस, जयन्ती, पुण्यतिथियों के नाम पर आयोजित कार्यक्रमां में मूल संदेश और उद्देश्य से दूर हार, फलहार औऱ उपहार में सिमट कर रह जाती है। यही बात पांच जून को विश्व पर्यावरण दिवस के नाम पर होने वाले जलसों की है। हम इसे पर्यावरणीय चिंता का एक दिवसीय जलसा कह सकते हैं। वक्ताओ द्वारा पर्यावरण को लेकर गंभीर चेतावनी के साथ गहरी चिंताएं व्यक्त की जाती हैं।पर्यावरण सरंक्षण के बड़े बड़े संकल्प लिए जाते हैं ठीक उसी तरह जैसे हमारे नेता मंत्री बनने पर संविधान, पद और गोपनीयता की शपथ लेते हैं। शपथ लेने के बाद शपथ को ताक पर रख कर लोकतंत्र में मनमाना व्यहवार शुरू कर देते हैं।
महात्मा गांधी की प्रकृति और पर्यावरण पर ठीक ही कहा था कि “पृथ्वी पर मनुष्य की आवश्यकता की पूर्ति के लिए पर्याप्त संसाधन हैं, लेकिन उसके लालच की पूर्ति के लिए नहीं।” उक्त कथन पर्यावरण के प्रति गांधीजी के गहरे सम्मान और मानवीय उपभोग के प्रति उनके विवेकपूर्ण दृष्टिकोण को दर्शाती है।वर्तमान में भारत में पर्यावरण की स्थिति चिंताजनक है और कई प्रमुख चुनौतियों का सामना कर रही है। बात वायु प्रदूषण की जाए तो स्थिति चिंताजनक है। भारत दुनिया के सबसे प्रदूषित देशों में से एक है। IQAir की विश्व वायु गुणवत्ता रिपोर्ट 2024 के अनुसार, भारत 5वां सबसे प्रदूषित देश है, जिसका औसत पीएम2.5 स्तर विश्व स्वास्थ्य संगठन की सुरक्षित सीमा से 10 गुना अधिक है। कई भारतीय शहर, जैसे नई दिल्ली और बर्नीहाट (मेघालय), दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में से हैं।
वाहनों और उद्योगों से निकलने वाला उत्सर्जन, साथ ही सड़क पर उड़ने वाली धूल, वायु प्रदूषण के प्रमुख कारण हैं।
जल प्रदूषण बात की जाए तो जल प्रदूषण अनेकों बीमारियों का बुनियादी कारण बना हुआ है। नदियां, झीलें और अन्य जल निकाय औद्योगिक कचरे और घरेलू सीवेज से बुरी तरह प्रदूषित हैं। उदाहरण के लिए, दिल्ली में यमुना नदी एक नाला बनकर रह गई है। गिरता भूजल स्तर भी एक बड़ी समस्या है, जिससे कई क्षेत्रों में पानी की कमी हो रही है।
प्रदुषण का आलम यह जिस मिट्टी में फसलों को पोषित करने वाले मिनरल्स हुआ करते थे आज इसी मिट्टी की सेहत खुद खराब है। मृदा क्षरण अत्यधिक खेती, रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के उपयोग से मिट्टी की उपजाऊ क्षमता कम हो रही है, जिससे खाद्यान्न उत्पादन प्रभावित हो रहा है। वनों की कटाई और घटिया कृषि पद्धतियां भी मृदा क्षरण में योगदान करती हैं।
औद्योगिक विकास के नाम पर वनों की अंधाधुध कटाई से जैव विविधता को हानि पहुंच रही है। वनों की अंधाधुंध कटाई से न केवल जैव विविधता पर खतरा मंडरा रहा है, बल्कि यह जलवायु परिवर्तन और ग्रीनहाउस प्रभाव को भी बढ़ा रहा है। जैव विविधता का नुकसान एक गंभीर पर्यावरणीय मुद्दा है।स्वच्छ भारत अभियान की जागरूकता अभियान के बाद भी कचरा प्रबंधन की संस्कृति नागरिक समाज में विकसित नहीं हो पाई है। भारत में अपशिष्ट प्रबंधन एक बड़ी चुनौती है, खासकर शहरी क्षेत्रों में। खराब कचरा प्रबंधन प्रदूषण के स्तर को बढ़ाता है।प्रदूषण के कारण पर्यावरणीय असुंतलन प्राकृतिक आपदाओ को आमंत्रित कर रहा है। चक्रवात और वार्षिक मानसून बाढ़ जैसे प्राकृतिक खतरे भी पर्यावरण पर दबाव बढ़ाते हैं।
तेजी से बढ़ती जनसंख्या घटते संसाधन से भी पर्यावरण की समस्या का अंतर संबंध समझना होगा। बढ़ती जनसंख्या और बढ़ती व्यक्तिगत खपत प्राकृतिक संसाधनों पर अत्यधिक दबाव डाल रही है।
बात सरकारी प्रयासों की जाए तो वह नाकाफी साबित हो रहे है और चुनौतियाँ बढ़ती जा रही हैं। भारत सरकार ने पर्यावरण संरक्षण के लिए कई कानून और नीतियां बनाई हैं, जिनमें पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 प्रमुख है। यह अधिनियम पर्यावरण की सुरक्षा और सुधार के लिए एक व्यापक कानूनी ढांचा प्रदान करता है। हालांकि, इन कानूनों के बावजूद, पर्यावरण की स्थिति गंभीर बनी हुई है। इसका एक कारण इन कानूनों का प्रभावी ढंग से लागू न हो पाना और जन जागरूकता की कमी भी है।
कुल मिलाकर, भारत में पर्यावरण की स्थिति कई जटिल चुनौतियों का सामना कर रही है, जिसके लिए सरकार, उद्योगों और आम जनता द्वारा मिलकर प्रयासों की आवश्यकता है।

लेखक परिचय:
विवेक दत्त मथुरिया वरिष्ठ पत्रकार हैं! दैनिक जागरण, लीजेंड न्यूज, कल्पतरु एक्सप्रेस समेत तमाम मीडिया संस्थानों में काम कर चुके हैं, वर्तमान में ब्रज ब्रेकिंग न्यूज के कार्यकारी संपादक हैं।