व्यंग
विवेक दत्त मथुरिया (वरिष्ठ पत्रकार)
मूर्ख बने रहना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। मूर्ख थे, मूर्ख है और मूर्ख ही बने रहेंगे। दुनिया की कोई भी ताकत हमें समझदार नहीं बन सकती। क्योंकि मूर्खता सहज होती है और समझदारी असहज। थोड़ी सी भी समझदारी दिखाई तो समझो कोई न कोई आफत, मुसीबत, परेशानी, दिक्कत, टेंशन आ सकती है। टेंशन होती ही समझदारी की वजह से है, इसलिए मूर्ख लोग कभी भी समझदारी का परिचय नहीं देते। यही कारण है कि मूर्ख लोग मस्त मलंग पाए जाते हैं।
बृज की कहावत है कि जीवन में आनंद के साथ जीना है तो मोदू बन के जी। ज्यादा समझदारी दिखाने से दिमाग पर जोर पड़ता है। दिमाग पर ज्यादा जोर डालने से न्यूरो संबंधित बीमारियां हो जाती है। जीवन भर दवाएं खानी पड़ती हैं। अगर सही मायने में पेड़े खाने हैं तो ऐड़ा बनना पड़ेगा। ऐड़ा बन के पेडा खाओ।
समझदारी का परिचय देने से अक्सर हानि होती है। खुद ही देख लो बिना लॉजिक वाली पार्टी के लोग मौज काट रहे हैं और लॉजिक लगाने वाले जेल। लॉजिक बिल्कुल मत लगाओ, लॉजिक लगाओगे तो घाटे में रहोगे। इसलिए मूर्ख बने रहो मूर्ख बनने के फायदे हजार हैं। मूर्ख बने रहने का पहला फायदा यह है कि महंगाई बिल्कुल महसूस नहीं होती। बच्चे आगे चलकर क्या करेंगे, इसे लेकर कोई भी दिमागी परेशानी नहीं होती। बच्चों को शिक्षा मिलेगी या नहीं? रोजगार मिलेगा या नहीं? सरकार सस्ता इलाज क्यों नहीं उपलब्ध करा पा रही है? यह ऐसे सवाल जो मूर्खता प्रात शख्स को किंचित भी परेशान नहीं करते। दिमागदार व्यक्ति इन्हीं सवालों को लेकर ट्वेंटी फोर बाई सेवन टेंशन में रहता है। जब भी आप उसके सामने प्रकट होंगे इन्हीं सवालों को लेकर रोना धोना शुरू कर देता है। ये लॉजिक वाला संप्रदाय असल में सवाल दर सवाल कर रायता फैलाने का काम करता है।
हम ठहरे आस्था वाले लोग, जब लोगों के सारे काम आस्था से हो जाते हैं, तो फिर सवाल खड़ा कर अपना ही भेजा फ्राई करने में कौन सी समझदारी है? आस्था के लिए दिल से काम लो दिमाग लगाने की क्या जरूरत है। जिस बात में भी एक बार दिमाग लगा दो फिर देखो सवाल दर सवालों का सिलसिला रुकने का नाम ही नहीं लेगा। आप सब को गणित का वह वाला फार्मूला याद है न माना, चूंकि, इसलिए! मास्टर जी के कहने से बच्चे मान लेते थे और सवाल हल हो जाता था। बस लॉजिक के मुकाबले यही महान काम आस्था करती है। एक क्षण के लिए मान लो मिठाई खाने का मन हो और जेब में मिठाई खाने के लिए पैसे भी न हों। जेब की हालत कांग्रेस के सीज बैंक एकाउंट जैसी हो तब मिठाई खाने का विचार त्यागना ही श्रेष्ठ उपचार सिद्ध होगा। यह रही लॉजिक की बात। अब इसी बात को आस्था के आधार पर सोचते हैं तो एक बेहतरीन समाधान आपके सामने होगा। जेब मैं पैसा नहीं और मिठाई भी खानी है, तो ऐसे में आप सोचिए कि हम शहर की प्रसिद्ध मिठाई की दुकान पर खड़े होकर मिठाई खा रहे हैं और भरपूर आनंद ले रहे हैं, इसे कहते हैं आस्था। कुल जमा ज्ञान की बात है कि समझदारी में कुछ नहीं रखा, जो आनंद और सुख मूर्खता में है वह अन्य किसी विचार में नहीं है।