
कविता (मातृ दिवस पर विशेष)
डॉ. धर्मराज
माँ, होती है केवल माँ
घर की आन-बान-शान
पापा का धन
माँ, जिसके विश्वास के आगे
बौना नज़र आता है हिमालय
माँ, जिसकी पवित्रता के आगे
मैली नज़र आती है गंगा
माँ के चरणों की रज हैं दुनिया के सभी धर्म
कोई देवता नहीं
जो हो सके खड़ा माँ के सामने
घर की बुनियाद है माँ
हर मुसीबत फरियाद में है माँ
माँ तू है तो पैन्ट दूसरे दिन धुलता है
तू नहीं तो वही पैन्ट सप्ताह भर चलता है
माँ तू है तो घर में हास है, परिहास है
तू नहीं तो ज़र्रा-ज़र्रा उदास है
माँ तू है तो रोटी जली है सब्जी में नमक ज़्यादा है
तू नहीं तो सब सीधा-साधा है
माँ तू है तो करवा चौथ है, अहोई अष्टमी है
तू नहीं तो ये धरती रुष्टमी है
माँ तू है तो जन्नत है स्वर्ग है
तू नहीं तो दोज़ख है, नरक है
माँ जब लगाती है घर में पौंछा
तो प्रवेश नहीं करने देती पापा को
बच्चों के प्रवेश पर लगाती है कई बार पौंछा
माँ के हाथ से बना खाना लज़ीज़ होता है
और हाथ से धुले कपड़े गृहस्थी का आईना
माँ जीती पापा के लिए है
और मरती सन्तान के लिए है…।
कवि परिचय
डॉ. धर्मराज
जन्म- 25 दिसम्बर, 1968 को मथुरा जनपद के ऐतिहासिक कस्बा सोंख में
शिक्षा- Ph.D. (सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ के कथा-साहित्य में चित्रित समाज विषय पर)
सम्प्रति- डीन, फैकल्टी ऑफ लिबरल आर्ट्स एंड साइंसेजकेएम विश्वविद्यालय, मथुरा
अब तक 4 पुस्तकें प्रकाशित
1. आदमी अब भी अकेला है
2. कुछ दिन और
3. कह दो अधरों से
4. सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ का कथा-साहित्य और समाज
