रामवीर सिंह तोमर (मंडल अध्यक्ष आगरा, भाकियू चढूनी)
भारत जैसे कृषि प्रधान देश में किसानों की जो दशा है, वह किसी से छुपी नहीं है, फिर भी इस ओर न तो किसी भी दल/ पार्टी का ध्यान है और न ही उस वर्ग का जो लगभग कृषि पर ही निर्भर है।
कभी मौसम के चलते फसल चौपट हो जाती है तो कभी किसानों को उसकी उपज का लाभकारी मूल्य तो छोड़िये लागत मूल्य तक वापिस नहीं मिल पाता। फसल उगाने पर किए गए खर्च जिसमें जुताई, सिंचाई, खाद बीज, कीटनाशक, ढुलाई मजदूरी तक को निकाल पाना भी मुश्किल हो जाता है। कई बार तो किसानों को मंडियों तक का भाड़ा तक नहीं निकलता। कई बार नौबत यहां तक आ जाती है कि किसान अपना उत्पाद मंडियों में छोड़ कर चले जाते हैं। महंगे डीजल, कीटनाशक, खाद, महंगी लेबर आदि ने किसान के रूप में जीवनयापन करना मुश्किल बना दिया है। खेती की लागत लगातार बढ़ रही है और खेती किसानी करने वाले लोगों की आर्थिक स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आया है।
युवा पीढ़ी का खेती से मोहभंग होता जा रहा, तो किसान भी अपने बच्चों को किसानी नहीं कराना चाहता इस पर हमें चिंतन करना चाहिए। आजादी के 78 सालों बाद भी देश का किसान लाभकारी मूल्य के लिए संघर्ष कर रहा है, गौतम बुद्ध नगर के किसान मुआवजे के लिए आंदोलन कर रहे हैं तो आगरा के किसान को विकास प्राधिकरण के अत्याचार और सरकार की चुप्पी ने आंदोलन के लिए मजबूर कर दिया है।
किसान नेता डल्लेवाल एमएसपी पर कानूनी मान्यता जैसी मांगों के लिए आमरण अनशन पर हैं। डल्लेवाल ने कहा कि उनकी मांगों को लेकर केंद्र ने वायदे किए थे और किसान संगठन इन्हीं वादों को लेकर अपनी लड़ाई शांतिपूर्ण ढंग से लड़ रहे हैं। संसदीय कमेटी ने भी अपनी रिपोर्ट में एमएसपी दिए जाने और कर्ज माफी की बात की है। लेकिन इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर चारों ओर से चुप्पी हैरान करने वाली है! यहां तक कि जो लोग किसानों के नाम पर राजनीति करते हैं, रोटी सेकते हैं उनके मुंह भी सिले हुए हैं।
इस पर वरिष्ठ किसान नेता रतन सिंह पहलवान कहते हैं कि राजनीतिक दल जब विपक्ष में होते हैं तो किसानों की दशा बदलने और उनकी मदद करने की बड़ी बड़ी बातें करते हैं लेकिन किसानों की दुहाई देने वाले वही लोग सत्ता की कुर्सी तक पहुंचते ही सब भूल जाते हैं। किसानों के नाम पर बने तमाम दलों के किसान मोर्चा से लेकर किसान संघ-समिति-संगठन आदि के प्रवक्ता टीवी पर चर्चा करते तमाम बात जरूर किसानों की करते हैं लेकिन जब भी किसान अपनी जायज मांगों के बोलता है तो उस पर राजनीत होने लगती है और किसान को किसान तक नहीं माना जाता है।
डा. रमेश चंद्र सिकरवार कहते हैं कि आज किसानों के नाम पर तमाम संगठन हैं लेकिन संगठनों में एक राय नहीं है, किसान नेताओं की महत्वाकांक्षा उनको एक साथ नहीं आने दे रही। बाबा टिकैत की तरह कोई संगठन केंद्र से और राज्य सरकारों से अपनी बात नहीं मनवा पा रहे हैं। बतौर डॉक्टर सिकरवार जब तक किसान इस राजनेताओं के लालच को छोड़कर अपने बीच का जमीन से जुड़ा प्रतिनिधि संसद और विधान सभाओं नहीं भेजेगा जो वहां जाकर किसान हक में आवाज बुलंद कर सके तब तक किसानों का भला नहीं होने वाला। ईमानदार किसान नेताओं को वोट न देना किसानों की आने वाली पीढ़ी के लिए बड़ी भूल है।
वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक केपी मलिक कहते हैं (FB वाल पर लिखते हैं) कि मुझे यह कहने में कतई गुरेज नहीं है कि राजनीति के शिकार हमारा किसान कई धड़ों में खंड-खंड हो चुका है। समाज के कई लोग जिनमें शायद मै ख़ुद भी शामिल हूं, किसान, गांव और खेत आदि के मुद्दों पर भावनाओं में बह जाते हैं, कई लोगों की आंख की किरकिरी बन जाते हैं। और दूसरी ओर कुछ लोग ऐसे भी हैं जो दलाली और चापलूसी करके अपने व्यक्तिगत हितों को साधने का मौका बिलकुल नहीं छोड़ते और सफेदपोश बनकर अन्य लोगों को ज्ञान बांटते फिरते हैं।
बहरहाल, उम्मीद है कि किसानों की मांगों को जल्द सुना जाएगा मैं खुद एक किसान का बेटा हूं और किसानों का दर्द अच्छी तरह समझता हूं, इसलिए मैं देश भर की तमाम सरकारों से अपील करता हूं कि वे देश के किसानों के प्रति सकारात्मक रवैया अपनाएं क्योंकि आज के आधुनिक युग में जब मजदूर को भी 500 से 700 रुपए रोजाना की मजदूरी मिलती है तो किसान की औसत आमंदनी भी ऐसी हो कि वह भी अपने बच्चों को अच्छे स्कूलों में पढ़ा सके बेटी की अच्छी तरह शादी कर सके।