डॉ. अशोक बंसल
शुक्रवार की सुबह हुमा साहब के बेटे ने फोन पर हुमा साहब के जाने की खबर दी। इससे पहले मित्र डॉ. राजकुमार चतुर्वेदी ने उनकी बिगड़ती तबियत की खबर मुझे दी थी। तब मेरी आँखों के सामने माइक के सामने कविता पाठ करते हुमा साहब की पुरानी तस्वीरें तैरने लगी थी। एक बार वे अस्पताल के बिस्तर पर भी शायरी की चादर ओढ़े लेटे थे।
बात दो साल पुरानी है। तब मैंने कविता की ताक़त को अपनी आँखों से देखा था। मथुरा के लाडले शायर और कवि महेंद्र ‘हुमा’ की बूढ़ी काया अस्पताल के बिस्तर पर एकदम शांत पड़ी थी। हाथ-पैर सफ़ेद हो गए थे। हीमोग्लोबिन का स्तर चार रह गया था। उनके पैर की हड्डी कुछ ही दिन पहले टूटी थी। होंठ फड़फड़ा रहे थे पर आवाज़ गायब थी। शायरी के शौक़ीन डॉ. राजकुमार चतुर्वेदी ने ख़ून चढ़ाने का फैसला लिया। एक, दो और फिर तीन बोतलें चढ़ते ही कवि हुमा ने मानो हुँकार भरी। वे न कराहे और न पानी माँगा। उनके अधर फड़फड़ाये और पास बैठे तीमारदारों ने उनके अधरों से रपटे इस शेर को सुना तो सभी की भुजाएं हुमा को सीने से लगाने को मचल उठी। शेर था:
”दर्द हाथों की लकीरें बन गया,
ये हमारा मुस्तकिल मेहमान है”
सन 1933 में जन्मे महेंद्र हुमा ने ‘अलीगढ़ विश्वविद्यालय’ से स्नातक की डिग्री लेकर आगरा के अफ़ज़ल साहब उस्ताद के सानिध्य में ग़ज़ल लिखना शुरू किया। इसके बाद हुमा ने अपनी कविता में शोषित-पीड़ित जन की आवाज़ को स्थान देना शुरू किया। आज़ादी के बाद सत्ता पर काबिज़ हुक्मरानों के आडम्बरों पर जमकर चोट करने वाले हुमा बहुत जल्द ही ब्रज मंडल के नामी गज़लकारों की पंक्ति में शरीक हो गए। मथुरा के काव्यप्रेमी हुमा की कविता को सुनने को मचलने लगे। हुमा की शायरी में सत्ताधीशों के षड्यंत्रों का ख़़ुलासा ही नहीं होता है बल्कि इंसानी जीवन की विडम्बनाओं और विसंगतियों पर भी हुमा की कविता सर उठा कर बोलती है। जब हुमा के बेटे पिता की जर्जर काया को अस्पताल लाए तो 82 साल के हुमा के फिर से जी उठने की उम्मीद न थी। लेकिन हुमा मौत को ललकारते हुए दिखाई दे रहे थे। हुमा को देखकर मुझे अंग्रेज़ी कवि राबर्ट ब्राउनिंग का स्मरण हो आया।
ब्राउनिंग ने अपनी एक कविता में शायद यह लाइन हुमा जैसे योद्धा को देखकर ही लिखी होगी:
”I was ever a fighter so one fight more, (मैं सदैव से योध्दा रहा हूँ सो एक जंग और)।
ख़ून चढ़ते ही हुमा के शरीर में जबरदस्त हलचल हुई और सामने खड़े लोगों को सुनाने लगे-
”तुम तो सब सच कहने आये हो,
सच कहो हौसला भी साथ लाये हो”
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”यूं तो जी लेना आसान है,
क्या करू मेरे अंदर इंसान है
आदमी बनना बहुत दुश्वार है,
जानवर बनना बहुत आसान है”
अस्पताल के बिस्तर जितनी देर हुमा साहब रहे, बीमारी की बातों का जिक्र ही नहीं किया, सिर्फ शायरी और शायरी। छुट्टी मिलने पर अस्पताल से घर जाते हुमा ने डाक्टर से ‘कौन सी दवा कब लेनी है या अब फिर कब आना’ जैसे सवाल नहीं पूछे। बस सूखे होंठों पर जबरन मुस्कान लाते इतना बोले, ”डॉक्टर आपने मुझे जिता दी ज़िंदगी की एक और जंग।”
डॉक्टर ने जबाब दिया, ”हुमा साब, आपने ये जंग मेरी वजह से नहीं,अपनी बेबाक शायरी के कारण जीती है।” हुमा साहब जीवन में कई जंग जीते लेकिन इस बार वे हार गए। मैं सोचता हूँ वे इस बार भी नहीं हारे, उनकी शायरी उन्हें हमेशा जीवित रखेगी। हुमा साहब को मेरा सलाम।