
लठामार होली बरसाना का दृश्य (फाइल फोटो)
विवेक दत्त मथुरिया
बरसाना(ब्रज ब्रेकिंग न्यूज़)। जग होरी ब्रज होरा की कहावत यूं ही नहीं है। जितने दिन की ब्रज में होली होती है लगभग उतने ही रंग ब्रज की होली में देखने को मिलते हैं। सच यह है कि ब्रज में होली सवा महीने से भी अधिक चलती है। कहीं लड्डूओं की होली होती है तो कहीं फूलों की। कहीं लाठियों से रंग बरसता है तो कहीं रसियाओं से। कहीं कपड़े फाड़कर कोड़ों से रंग बरसता है तो कहीं अबीर गुलाल के रंग बिरंगे बादल सतरंगी छटा बिखेरते हैं। राधा कृष्ण और राधा बलदाऊ जी के काम रहित प्रेम की इस लीला को होली और हुरंगा के रूप में ब्रज में देखा जा सकता है।

वैसे तो ब्रज मण्डल में होली का त्योहार वसन्त पंचमी से ही शुरू हो जाता है। मंदिरों में फाग की धमारों के बीच अबीर गुलाल उड़ना शुरू हो जाता है। ब्रज की होली बरसाना नंदगांव से अपने यौवन पर आती है। यहां की लाठियों से बरसा रंग और अबीर गुलाल के सतरंगी बादल पूरे देश में फैल जाते हैं। अब बात करते हैं ब्रज में होने वाली विभिन्न प्रकार की होलियों और उनसे जुड़े उत्सवों के बारे में।

लड्डू होली- ये होली सिर्फ बरसाना में ही देखने को मिलती है। बरसाना की लठामार होली से एक दिन पूर्व इस होली का आयोजन बरसाना के विश्व प्रसिध्द राधारानी मन्दिर में इसका आयोजन होता है। इस होली में कई कुंटल लड्डू बरसाए जाते हैं। जिन लोगों के हाथ ये लड्डू पड़ते हैं वो स्वयं को धन्य मानता है। अपने आप में ये अनौखी और अद्वितीय होली होती है।

लठामार होली – फागुन मास की नवमी को बरसाना और दशमी को नंदगांव में लठामार होली का आयोजन रँगीली गली में होता है। इसमें हुरियारिन बनी महिलाएं हुरियारे बने पुरुषों पर लाठियों से तेज प्रहार करती हैं। हुरियारे भी उन प्रहारों को हंसते गाते और हंसी ठिठोली करते चमड़े से बनी ढालों पर सहते हैं। लठामार समापन के बाद एक दूसरे से क्षमा प्रार्थना भी करते हैं। लाठियों की मार का और हंसी ठिठोली में दी गई प्रेम पगी गालियों का कोई बुरा भी नहीं मानता।

रसिया होली – ब्रज के गांव गांव में रसिया होली का आयोजन होता है। इसमें रसिया गाने वालों की टोली के साथ नाचने वाले भी होते हैं जो महिलाओं के साथ होली के रसियाओं की तान पर नृत्य करते हैं। महिलाएं भी कुंदा के बीच गायन कर बराबरी करती हैं। इस दौरान नृत्य की भाव भंगिमाएँ दर्शकों को स्वतः ही आकर्षित करती हैं।

फूल होली- आमतौर पर यह होली किसी विशेष स्थान पर नहीं होती है, परन्तु फागुन मास में फूल होली के बिना किसी धार्मिक कार्यक्रम या सांस्कृतिक आयोजन अधूरे होते हैं। इसमें फूलों की पंखुड़ियों को रंग गुलाल के स्थान पर बरसाया जाता है।

गोकुल की छड़ी मार होली- इस होली में हुरियारिन हुरियारों पर छड़ियों से प्रहार करती हैं। हुरियारे इन छड़ियों से अपना बचाव करते हैं। यह होली प्रमुखतः गोकुल में होती है। विभिन्न गांवों में भी इस प्रकार की होली देखने को मिलती हैं।

रंग अबीर गुलाल की होली- यह होली ब्रज के अलावा लगभग सम्पूर्ण भारत में खेली जाती है। इसमें विभिन्न प्रकार के रंग, अबीर गुलाल का प्रयोग किया जाता है। रंग भरनी एकादशी से पूर्णिमा तक मथुरा वृन्दावन के जन्मस्थान, द्वारिकाधीश जी, बिहारी जी, राधाबल्लभ जी, राधारमण जी आदि में जमकर अबीर रंग गुलाल की बरसा होती है।
धूल होली या गोबर होली- यह होली मुख्य होली के अगले दिन खेली जाती है जिसे धूलहोली या धुलेंडी के नाम से भी जाना जाता है। इस होली में गोबर, कीचड़ यहाँ तक कि काले तेल तक का भी प्रयोग कर लिया जाता है। आधुनिकता के दौर में अब इस प्रकार की होली का प्रचलन कम होता जा रहा है।
हुरंगा- हुरंगा प्रायः धूलहोली के बाद शुरू होते हैं। हुरंगाओं का सम्बंध दाऊ जी और राधा जी के बीच खेली गई होली माना जाता है। ब्रज के दाऊजी, नंदगांव, गिडोह, बठैन ,जाब के साथ साथ अन्य गांवों में भी देखने को मिलते हैं। बलदेव को छोड़कर अन्य स्थानों पर हुरियारिन लाठियों से हुरियारों पर प्रहार करती हैं और हुरियारे लकड़ी की हत्थीयों से उन प्रहारों को रोकते हैं।
फूलडोल – इसे होली और हुरंगाओं का मिश्रण कहा जा सकता है। नंदगांव के समीपवर्ती गांव खायरा में और प्रमुख मंदिरों में फूलडोल आयोजन होता है। खायरा में विभिन्न सांस्कृतिक आयोजन भी आयोजित होते हैं।
बलदेव का कोडा मार हुरंगा- यह हुरंगा बलदेव के विश्व प्रसिद्ध मंदिर में आयोजित होता है। इसमें महिलाएं पुरुषों पर रंग में तर बतर कोड़ों से प्रहार करती हैं और कपड़े तक फाड़ देती हैं। पुरुष उन कोड़ों की मार को बड़े चाव से खाते रहते हैं। मन्दिर के ऊपर से टेसू के फूलों का रंग बरसाया जाता है।
चरकुला नृत्य- धूलहोली के अगले दिन गोवर्धन के समीपवर्ती गांव मुखराई में चरकुला नृत्य का आयोजन होता है। यह गांव राधारानी की नानी मुखरा देवी के नाम पर बसा है और राधा रानी की ननसार है। महिलाएं पहिये नुमा चक्र पर सैंकड़ों दीपक जलाकर नृत्य करती हैं। चरकुला नृत्य की विदेशों में भी पहचान है।
साखी की होली- इस होली में इस प्रकार की साखियों का गायन किया जाता है जो द्विअर्थी हों। साखियों को विभिन्न प्रकार के वाद्य यंत्रों के साथ गाया जाता है। इस पर पुरुष और महिलाएं साखी अनुरूप भाग भंगिमाएँ नृत्य में करके दर्शकों को लुभाते हैं। अब इस प्रकार की होली यदा कदा ही देखने को मिलती हैं। साथ चौपइयों की होली भी होती है जिसमें प्रायः रात्रि में गलियों चौराहों पर चौपाइयां गायीं जाती हैं।